भारतीय लोककलाएँ

भारत के विभिन्न प्रांतों के दुर्गम भागों में रहने का अवसर मुझे मिला क्यों कि मेरे पति, भारत सरकार के अधीन एक सार्वजनिक उपक्रम NTPC में काम करते थे। साथ ही घूमने का शौक होने के कारण लगभग सभी प्रान्तों की भ्रमन्ती भी की हैं। विभिन्न प्रांतों में रहते हुए वहाँ की लोककलाओं को भी मैंने देखा क्यों कि NTPC द्वारा स्थानीय कलाकारों को प्रोत्साहन देने के लिए कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। कला के विषय में रूचि होने के कारण मैने हमेशा इन लोककलाओं के बारे में ज्यादा जानने की कोशिश की है। इसी कोशिश के नतीज़े इस लेख के रूप में प्रस्तुत हैं।

भारतीय समाज की विभिन्न जाती एवं जनजातीयों में कई पीढ़ियों से  चली आ रही कलाओं को हम लोककला कहते हैं।

लोककलाओं को मुख्यतः दो वर्गों में बाँटा जा सकता है।

  1. निष्पादन कलाएं (Performing art) जिनमें कलाकार अपने शरीर, आवाज, चेहरे के भाव आदि का प्रयोग करके अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं जैसे नृत्य, नाटक, गीत, संगीत, कथाकथन इत्यादि।
  2. दृश्य कलाएं जिसमें कलाकार अपनी कला का उपयोग करके भौतिक वस्तुओं का निर्माण करता है जैसे चित्र या शिल्प।

आइये आज हम भारतीय लोककलाओं में समाविष्ट कुछ निष्पादन कलाओं के बारे में जानकारी प्राप्त करें।

भारतीय निष्पादन कलाएँ

भांड पाथेर: भांड पाथेर व्यंग्यात्मक रूप में प्रस्तुत की जानेवाली काश्मीर की लोककला है। काश्मीर में जब हिंदू शासक थे तब भांड पाथेर हिंदू मंदिरों में खेला जाता था। कल्हण की रचना 'राजतरंगिणी' में भांड पाथेर का वर्णन है। भांड पाथेर के माध्यम से घाटी के संघर्ष, सामाजिक बुराइयाँ और अन्य ज्वलन्त मुद्दों को उठाया जाता है तथा सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक संदेश प्रसारित किये जाते हैं। भांड मुख्यतः किसान होते है अतः कृषक वर्ग की संवेदनाओं का प्रभाव भांड पाथेर पर होता है। व्यंग, नकल और हास-परिहास भांड पाथेर का आधार है। संगीत के लिए ढोल, नगाड़े, सुरनाई इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। विषय के अनुसार वेषभूषा, संवाद और भाव भंगिमाओं के द्वारा कलाकार दर्शकोंको कई घंंटों तक बांधे रखते हैंं।

पण्डवाणी: पण्डवाणी छत्तीसगढ़ का एकलनाट्य है। पण्डवाणी अर्थात पाण्डववाणी अर्थात महाभारत परंतु कुछ अंतर के साथ। महाभारत का नायक अर्जुन है परंतु पण्डवाणी का नायक भीम है। पण्डवाणी में कौरव-पांडव दोनों को पशुपालक दिखाया गया है और दोनों पशुओं को चराने वन में जाते हैं। कौरव हमेशा अर्जुन को परेशान करते हैं। भीम उन्हें बचाते है और कौरवों को सबक सिखाते है। पण्डवाणी में महाभारत के युद्ध को महाधान का युद्ध कहते है। पण्डवाणी का आयोजन कहीं भी कभी भी हो सकता है। किसी पर्व या त्यौहार की आवश्यकता नहीं होती है। कभी-कभी कई रातों तक पण्डवाणी चलती है। देवार और परधान जाती के लोग पण्डवाणी करते हैं। पण्डवाणी की दो शैलियाँ हैं - कापालिक और वेदमती। कापालिक शैली में कलाकार घूम घूम कर आवेश के साथ पण्डवाणी प्रस्तुत करते हैं। तीज्जनबाई, शांतिबाई चेलकने, उषाबाई बारले कापालिक शैली के ख्यातिप्राप्त कलाकार हैं। वेदमती शैली में गायक गायिका वीरासन में बैठ कर गायन करते हैं। श्री. झाडूराम देवांगन, कुनाराम निषाद, पंचूराम रेवाराम, लक्ष्मीबाई ये सारे वेदमती शैली के ख्यातिप्राप्त कलाकार हैं।

फड कला: राजस्थान की प्रसिद्ध फड कला दृश्य एवं निष्पादन कला के मेल का उत्तम उदाहरण है। फड कला में एक लंबे कपड़े पर बनाई हुई चित्रशृंखला की मदद से महाकाव्यों में वर्णित कथाओं को गीत-संगीत के साथ सुनाया जाता है। फड को केवल चित्र नही बल्कि देवतुल्य माना जाता है। फड को लपेटा जा सकता है अतः कलाकार फड को लपेट कर साथ में लेते हुए गाँव-गाँव धूमते हैं। शाम होते ही फड को खोलकर किसी सहारे के साथ टांग कर उसके सामने कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। छीपा जनजाति के लोग फड चित्र बनाते हैं। भोप और भोपी जाति के लोग कवि और संगीतकार होते हैं। वे कथा कथन करते हैं। इस दौरान वे रावणहत्था नामक वाद्ययंत्र का प्रयोग करते हैं। देवनारायण की फड,  पाबूजी की फड, रामदेव की फड, गोगाजी की फड, माताजी की फड आदि प्रसिद्ध हैं।

भवई: भवई गुजरात राज्य का प्रचलित लोकनाट्य है। भव तथा आई को मिला कर भवई शब्द बना। भव यानि विश्व और आई यानि माता अर्थात विश्व की माता जगतजननी अंबा। भवई का आरंभ अंबादेवी के पूजन के साथ होता है। चाचर में देवी के प्रतीक स्वरूप दीप या मशाल जला कर देवी की जयजयकार के बाद मंडली का नायक मंडली के सदस्यों को भवई आरंभ करनेके लिए आदेश देता है। भवई का मुख्य वाद्य भुंगल बजाकर ग्राम देवता को आमंत्रित किया जाता है। भुंगल के साथ तबला, झांझ और ढोलक भी बजाये जाते हैं। खुले रंगमंच पर पूरी रात गीत, संगीत और नृत्य के साथ वेशों का प्रदर्शन किया जाता है। वेश को स्वांग भी कहते है। भवई मंडली को ढोकु या पेडु तथा सौराष्ट्र में बेड़ा कहते हैं। भवई का मुख्य तत्व प्रहसन है तथा भवई की भाषा मुख्य रूप से गुजराती है। साथ ही उर्दू, हिंदी और मारवाड़ी का प्रभाव भी दिखता है। मुस्लिम वेशों में उर्दू और हिंदी का प्रयोग होता है।

भवई मुख्य रूप से तरगला जाती का पेशा रहा है परन्तु आजकल कई जातियोंके लोग भवई का प्रदर्शन करते हैं। कुछ लोकप्रिय भवई इसप्रकार हैं। महीपतराम नीलकंठ की 'राई नो पर्वत', बीकाजी व बाधोजी की 'गोपीनाथ', शोना गांधी लिखित 'जसमा ओडन', धीरूबेन पटेल द्वारा लिखित 'भवनी भवई', श्री दलपतराम रचित 'मिथ्याभिमान', श्री चंद्रवदन मेहता की 'लोकभवई 'इत्यादि। इन सबके अलावा श्री जनक दवे ने राष्ट्रीय एकता, अस्पृश्यता निवारण, साक्षरता, नारी जागृति एवं सक्षमीकरण, अंतरिक्ष ज्ञान इत्यादि विषयों पर वेश लिखें। उनके द्वारा लिखित वेशों को 'लोकरंजन भवई '(1988), 'देहनो दुश्मन' और 'शेषवंश' (1998) के रूप में प्रकाशित किया गया हैं।

नौटंकी: नौटंकी उत्तर भारत की एक प्रसिद्ध नाटक शैली है। नौटंकी पाकिस्तान और नेपाल में भी लोकप्रिय है। कुछ समीक्षकों के अनुसार नौटंकी स्वांग शैली का ही विकसित रूप है। स्वांग अधिकतर धार्मिक विषयों पर आधारित होता है और उसे थोड़ी गंभीरता से प्रस्तुत किया जाता है परंतु नौटंकी के विषय प्रेम और वीरता पर आधारित होते हैं और उसमें व्यंग, तंज और हास-परिहास समाविष्ट होता है। नौटंकी की भाषा हिंदी और उर्दू मिश्रित होती है। नौटंकी की कथाएँ अक्सर किसी  व्यक्ति विशेष पर आधारित होती हैं जैसे 'आल्हा-उदल की नौटंकी' या 'सुल्ताना डाकू की नौटंकी'। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बहुत सी नौटंकियों के  विषय ऐसे होते थे जिन्होंने सर्वसाधारण लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने की प्रेरणा दी। आजकल नौटंकी के विषय दहेज प्रथा, आतंकवाद, सांप्रदायिकता, जातिवाद आदि के विरुद्ध प्रचार करने वाले होते हैं। व्यावसायिक रूप से नौटंकी को सफल बनाने के लिए अंत तक दर्शकों की रूचि बनायें रखना आवश्यक होता है अतः अधिकतर नौटंकियों में दस मिनट या उससे कम अवधि की घटनाओं को जोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है। वीरता, प्रेम, हास्य-व्यंग्य, नृत्य, गायन, धर्म, राजकीय प्रसंग इन सबका मिश्रण करके कलाकार यह प्रयास करते हैं कि दर्शकों की भावनाएं लगातार उद्वेलित होती रहें।

रात रात भर चलने वाले भांड पाथेर, फड़ और नौटंकी को मैने छोटे रूप में यानि दो-ढाई घंटे के कार्यक्रम के रूप में देखा। धीरूबेन पटेल की भवनी भवई सूरत के एक थियेटर में देखी। तीज्जनबाई की पण्डवाणी हम सबने टीवी पर देखी है। उनकी शिष्या मंजू रामटेके की पण्डवाणी प्रत्यक्ष रूप से देखने का अवसर मुझे मिला। सारे हि अनुभव अपने आप में अनोखे और अद्भुत थे।

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टिप्पणियाँ

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  2. देश की विभिन्न लोककलाओं का बहुत सुंदर व सजीव वर्णन, मानो स्वयं ही सब देख लिया ।ऐसी जानकारी से ज्ञानवर्धन भी होता है । मुझे बहुत पसंद आया । धन्यवाद 👌

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