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कैसे छुडायें बच्चे की अंगूठा चूसने की आदत?

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मेरा एक छात्र उसका अंगूठा चूसता था। हालांकि वह दूसरी कक्षा में था फिर भी उसे अपना अंगूठा चूसने की आदत थी। मैंने उसकी मां से बात की और उसने कहा कि जब वह बड़ा हो जाएगा, तो अपने आप यह आदत छूट जायेगी। लेकिन मुझे लगता है कि वह इसे बहुत हल्के में ले रही है। देखें, यदि एक शिशु अपने अंगूठे या उंगलियों को चूस रहा है, तो आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।  केवल स्वच्छता का ठीक से ध्यान रखें।  बच्चे के हाथों को बार-बार धोएं।  जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता है और रेंगना शुरू कर देता है , उसके हाथ अन्य गतिविधियों में व्यस्त हो जाते हैं तब बच्चा अंगूठा चूसना बंद कर देगा।  लेकिन अगर यह अंगूठा चूसने की आदत डेढ-दो वर्ष की आयु के आगे भी जारी रहती है तो यह बडी समस्या हो सकती है। पहली बात यह है कि जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, तब अन्य बच्चों के साथ खेलते हुए और स्कूल में भी, यह अंगूठा चूसने की आदत उसके लिए शर्मनाक होगी।  यह शर्मिंदगी उसकी पढ़ाई को प्रभावित करेगी।  और जैसा कि यह आदत अस्वच्छ है अतः स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, यह कुछ स्वास्थ्य समस्याएं पैदा कर सकती है। दूसरी बात यह...

वैश्विक शिक्षक, श्री रणजीतसिंह डिसले

3 दिसंबर 2020, इस दिन सभी भारतीयों के मन आनंद से भर गए और मस्तक अभिमान से तन गये। इस दिन एक भारतीय शिक्षक श्री. रणजीत सिंह डिसले को वैश्विक शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। श्री. रणजीत सिंह डिसले महाराष्ट्र के सोलापूर जिले के परतेवाडी गांव में जिल्हा परिषद के स्कूल में प्राथमिक कक्षाओं को पढाते है। सारे ग्रामवासी उन्हे "डिसले गुरूजी" कहकर संबोधित करते हैं। ऐसा क्या किया होगा डिसले गुरूजी ने जो उन्हें आंतर राष्ट्रीय स्तर का यह पुरस्कार मिला, यह जानने से पहले, वैश्विक शिक्षक पुरस्कार के बारे में जानतें हैं। वैश्विक शिक्षक पुरस्कार   युनेस्को और वारके फाउंडेशन द्वारा यह पुरस्कार शिक्षण क्षेत्र में असाधारण योगदान देने वाले उत्कृष्ट  शिक्षक को दिया जाता है। वारके फाउंडेशन का ब्रिदवाक्य है 'Changing life through education.' शिक्षकों की क्षमता एवं गुणवत्ता को बढ़ावा देकर विश्व के प्रत्येक बच्चे तक उत्तम शिक्षण पहुँचाना, यही वारके फाउंडेशन का उद्देश्य है। वारके फाउंडेशन के संस्थापक सन्नी वारके युनेस्को के सदभावना राजदूत है। उनके माता-पिता शिक्षक थे। वारके फाउंडेशन युनेस्...

महाराष्ट्र की खाद्य संस्कृति भाग 3

इस लेख के प्रथम और द्वितीय भागों में हमने चर्चा की थी कोंकण, मुंबई, मराठवाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र के खानपान की। इस भाग बारी है खानदेश और विदर्भ की। खानदेश की खाद्य संस्कृति   महाराष्ट्र का अहमदनगर, नाशिक, धुळे, जळगाव, नंदुरबार यह सारा प्रदेश खानदेश कहलाता है। यहाँ के मांसाहारी और शाकाहारी दोनों ही तरह के व्यंजन इतने तीखे होते हैं कि नाक-कान से धुआँ निकले और आँखों से पानी। इतना अधिक तीखे का शौक कि हरी मिर्च की भी सब्जी बनती है।  हरी मिर्च की सब्जी मैंने अपनी आंध्र प्रदेश की एक सहेली के घर भी खाई थी। उसने हरी मिर्चों को इमली के रसके साथ पकाया था। खानदेश में हरी मिर्च के टुकड़े और अरहर की दाल समान मात्रा में लेकर पकाते हैं। साथ में कमरख के पत्ते और टमाटर का भी प्रयोग होता है। इसे डाळ गंडोरी कहते है। जळगाव के भरते वाले बैंगन लोकप्रिय है। वैसे खानदेश में निनवा या तरोई का भी भरता बनता है। कुछ और पदार्थ इसप्रकार है। भेंडके: अरहर की दाल का रवा बना कर उसका इडली जैसा व्यंजन। एडमी: मूँग दाल के डोसे। खानदेशी खिचड़ी: खानदेश में अरहर दाल की खिचड़ी बनती है। गरम तेल में लहसुन और मिरची लाल ...

महाराष्ट्र की खाद्य संस्कृति भाग 2

इस लेख के प्रथम भाग ' महाराष्ट्र की खाद्य संस्कृति भाग 1' में हमने कोंकण और मुंबई की खाद्य संस्कृति के बारे चर्चा की थी। इस दूसरे भाग में हम मराठवाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र के खानपान की चर्चा करेंगे। मराठवाड़ा की खाद्य संस्कृति  महाराष्ट्र का मराठवाड़ा विभाग आंध्र प्रदेश और कर्नाटक की सीमा पर होने के कारण वहाँ के सुशीला और आप्पे जैसे पदार्थ मराठवाड़ा में भी बनने लगे और वही के हो गये। आज भी शादी ब्याह में दाक्षिणात्य महाराज खाना बनाते हैं। यहाँ के कुतंलगीरी पेढे प्रसिद्ध हैं जो कम मिठे होते हैं। मराठवाड़ा में तिलहन का उत्पादन अधिक होने के कारण मूँगफली, तिल और अलसी का उपयोग भी खानपान में अधिक होता है। इन पदार्थों की सूखी चटनी जिन्हें 'भुरका' कहते है, हर घर में रहती हि है। ज्वार के पदार्थ  यहाँ ज्वार की पैदावार बहुतायात में होने के कारण ज्वार के ढेर सारे पदार्थ बनायें जाते हैं जैसे ज्वार के आटे का हलुआ और खीर, ज्वार के आटे का उपमा जो छाछ डालकर बनाया जाता है, ज्वार और उडद के मिक्स आटे की भाकरी, थालिपिठ, धिरडी और दशमी (दूध से आटा गूंथकर बनाई हुई रोटी) सारे हि एक से एक स्वादि...

महाराष्ट्र की खाद्यसंस्कृति भाग 1

चालीस साल पहले जब शादी के बाद मै महाराष्ट्र से उत्तरप्रदेश रहने गई तब एक सवाल कोई न कोई पडोसन पूछ हि लेती थी, "आज क्या बना रही हो? रोटी या चावल? यह सवाल मुझे बड़ा अजीब लगता क्यों कि महाराष्ट्र में सर्वसाधारण घरों में रोटी और चावल दोनों समान रूप से बनते हैं। एक आम महाराष्ट्रीय थाली में दाल, चावल, रोटी, सब्जी, दही, चटनी और सलाद होता है। शुरू में थोड़ासा दाल चावल घी डाल कर खाया जाता है ताकि गले और अंतडियों की greasing हो। महाराष्ट्र के खाद्य पदार्थों की बात चलते हि याद आते हैं बटाटावडा, वडापाव, भेल जैसे पदार्थ। आजकल पुरणपोळी, थालीपीठ, साबूदाना वडा जैसे पदार्थों को भी अन्य प्रांतों के लोग जानने लगे हैं। हालांकि इन व्यंजनों को बनाने का और खाने-परोसने का तरीका महाराष्ट्र के विभिन्न विभागों में अलग-अलग हैं। मराठवाड़ा और खानदेश में मिसळ के साथ खाई जानेवाली तर्री विदर्भ में पोहा के साथ भी परोसी जाती है। कोकण, पश्चिम महाराष्ट्र में ज्यादातर उकडिचे (steamed) मोदक बनते हैं और उपरी आवरण चावल के आटे का होता है। विदर्भ में ज्यादातर तले हुए मोदक बनते हैं और उपरी आवरण मैदा/सूजी का बनता है। महाराष्...

भीमबेटका शैलाश्रय

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भीमबेटका शैलाश्रय के शैलचित्र  फोटो क्रेडिट: असित जैन / शटरस्टॉक (सैनिक, उत्सव, सूअर, मवेशी और हिरण), ज़ैक ओ'वाई (बाइसन, मैन एंड बर्ड), फ्रेडेरिक सोलटन / टेरा / कॉर्बिस / इमेजिबिलिटीज़ (हाथी)। भारत में करीब 10,000 ऐसे स्थान हैं जहाँ गुफाओं में भित्तिचित्र तथा शैलचित्र पायें गये हैं। इन्हीं स्थानों में एक है भीमबेटका। ऐसा कहा जाता है कि पांडव वनवास में थे तब यहाँ गये थे। जिस जगह पर भीम बैठे उस जगह को भीमबैठका कहाँ जाने लगा। धीरे-धीरे भीमबैठका का रूपांतरण भीमबेटका में हुआ। अपने सात साल के मध्यप्रदेश के वास्तव में तो नही परंतु अभी कुछ पारिवारिक मित्रों के साथ इस अप्रतिम धरोहर को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भीमबेटका शैलाश्रय भारत में मध्यप्रदेश के रायसेना जिले में रातापानी वन्यजीव अभयारण्य में स्थित है। भोपाल से भीमबेटका की दूरी केवल 45 किमी है। भोपाल मध्यप्रदेश की राजधानी होने के कारण देश के सभी प्रमुख शहरों से रेल, बस और हवाई मार्ग से भलीभांति जुडा हुआ है। अतः अत्यंत सुगमतापूर्वक यहाँ पहुँचा जा सकता है। शैलचित्रों की खोज  पुरातत्ववेत्ता डाॅक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर द्वारा...